Sunday, July 8, 2012

कौन कहता है

कौन कहता है,
सोहबत का असर होता है,
फूल, फूल रहता है,
शूल, शूल रहता है।

खड़े पानी में,
कमल खिलते हैं,
बहती नदी में,
पत्थर अडिग रहते हैं।

मियां-बीवी की तकरार,
कायम रहती है,
मियां, मियां रहता है,
बीवी, बीवी रहती है।

कहने को,
बदल सकता है ज़माने को,
न खुद बदलता है,
न ज़माना बदलता है।

मानव जैसा होता है,
वैसे ही मित्र चुनता है,
सोहबत का जाल,
स्वयं बुनता है। 

Monday, February 13, 2012

भोग की वस्तु

स्त्री भोग की वस्तु नहीं,
मनुष्य भोग की वस्तु नहीं,
धर्म हमें यह सिखाता है,
बारंबार समझाता है।

क्या यह सत्य है,
या सत्य को नकारता है,
धर्म का दृष्टिकोण है,
अपना पक्ष बतलाता है।

आम नर-नारी की सोच,
शायद धर्म के विपरीत है,
इन रिश्तों में केवल,
भोग का संगीत है।

भोग के रिश्तों में,
कभी सुख कभी दुःख,
जो भोगी नहीं,
क्या जाने सुख-दुःख।

Sunday, February 12, 2012

चोर-महाचोर

बर्दाश्त की हद होती हो,
ऐसा लगता नहीं,
वर्ना नित्य नए कांड,
होते नहीं।

खून अब क्यों,
खौलता नहीं,
मर गया है ज़मीर,
बोलता नहीं।

इस कदर गिर चुके हैं हम,
खुद को भी पहचानते नहीं,
वानरों का सेनापति,
अब हनुमान नहीं।

कोई चोर तो कोई महाचोर,
बस इनमे फर्क है इतना,
कबूतर अपनी आँखें बंद भी करले,
कठिन है इनसे बचना।

आओ अपनी आँखें खोलें,
आवाजें करें बुलंद,
घिनौनी मौत से बेहतर है,
करें उनकी बोलती बंद.

Monday, January 30, 2012

जशन की जान

दुनिया को बदलने का
दम भरता
हैरत की बात
खुद नहीं बदलता

बाहर है चमक - धमक
अंधर से खोखला
बेमतलब का शोरो - गुल
मनुष्य हुआ बाँवला

अपने भी हैं पराये भी
भरे जहाँ में तन्हा
हर जशन की जान है
अपनी जान तन्हा

इधर - उधर की
बात करता
जिंदगी क्या
समझ नहीं सकता

जीने का मकसद
दूसरों को समझाता
काश ! जिंदगी की हकीकत
स्वयं समझ पाता

Sunday, July 3, 2011

शंखनाद

दबी-दबी सी आवाज़,
सुनो तो सही
लोग क्या कहते हैं,
सुनो तो सही।

अहंकार के अंधेरे में,
खो गए हो कहीं,
जहान कितना भी चिल्लाये,
आप सुनोगे नहीं।

अच्छा मानव कैसे बनेगा,
गर सुनता नहीं,
मात्र बोलने से,
ज्ञान बड़ता नहीं।

फल कैसे प्राप्त होगा,
तनिक सोचो तो सही,
फलों से लदी डालियाँ,
गर झुकेंगी नहीं।

आत्मा की आवाज़,
कभी सुनो तो सही,
दबी-दबी सी है,
सुनो तो सही।

Saturday, March 26, 2011

जय जापान

नहीं रुकता हे आँखों से पानी, यह तूने क्या किया सुनामी, जापान को कैसा झटका दिया, समस्त विश्व को रुला दिया।

Friday, February 4, 2011

गुरु जी

भारतवर्ष में,
है गुरुओं की भरमार,
ऐसा क्यों
समझाओ यार।

गरीबी हटाने के लिए,
चाहिए पैसों का भण्डार,
गुरुओं का इस से,
नहीं कोई सरोकार।

पुल बनाने के लिए,
अनाज की उपज बढ़ाने के लिए,
चाँद पर जाने के लिए,
अस्पताल चलाने के लिए।

जनता इनके पास,
क्यों जाती है,
अपना धन,
श्रद्धा से चढ़ाती है।

लोग बेवकूफ या पागल हैं,
मैं नहीं जानता,
पढ़े-लिखे शायद ऐसा माने,
मैं नहीं मानता।

भक्त प्यार से जाता,
आस्था से शीश नवाता,
मन की शांति पाता,
गुरु जी के गुण गाता।

छिपा इन बातों में,
है एक मूल कारण,
दुखी एवं अशांत मानव,
चाहे इनका निवारण।

इस प्रबल चाह के आगे,
उसका विवेक नतमस्तक है,
और यह भी सत्य है,
वह जहां खड़ा था, वहीँ है।