बर्दाश्त की हद होती हो,
ऐसा लगता नहीं,
वर्ना नित्य नए कांड,
होते नहीं।
खून अब क्यों,
खौलता नहीं,
मर गया है ज़मीर,
बोलता नहीं।
इस कदर गिर चुके हैं हम,
खुद को भी पहचानते नहीं,
वानरों का सेनापति,
अब हनुमान नहीं।
कोई चोर तो कोई महाचोर,
बस इनमे फर्क है इतना,
कबूतर अपनी आँखें बंद भी करले,
कठिन है इनसे बचना।
आओ अपनी आँखें खोलें,
आवाजें करें बुलंद,
घिनौनी मौत से बेहतर है,
करें उनकी बोलती बंद.
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