Saturday, August 2, 2008

शुरू आत

अब इस संसार में,
रहने को मन नही करता,
मानव का घोर पतन देख,
जीने को दिल नही करता।

झूठ ही झूठ यहाँ,
सत्य नहीं मिलता,
जीना दुष्वार हुआ,
मरने को मन करता।

कैसी लाचारी है ,
मर-मर कर जीता,
कैसा दर्द है ,
कम नही होता।

आशा की किरण,
दिखाई नही देती,
मौत भी,
गले नही लगाती।

कर्ता-धर्ता हैं हरामी,
इनका काटा न मांगे पानी,
आदमी पर नही है आस,
ऊपर वाले पर खोया विश्वास।

आ जाये प्रलय,
हो जाये अंत,
एक नई दुनिया बसाई जाये,
शुरू से शुरू किया जाये।





No comments: