मेघा उमड़-उमड़ आये,
शीत ब्यार लहराये,
आमों की डालियाँ झुकी जायें,
मयूरी तुम कब नाचोगी!
किस बात पे हो खफा,
किस कारण हो नाराज़,
प्रकृति बजा रही हर साज़,
मयूरी तुम कब नाचोगी!
आँखों की नमी बता रही,
याद पिया की सता रही,
आता नहीं जाने वाला,
मयूरी तुम कब नाचोगी!
दिल में लगा हे नश्तर,
सीने पर रख पत्थर,
इसे ही जीना कहते हैं,
मयूरी तुम कब नाचोगी!
छलनी हो झरना गिरता है,
सरिता सागर से मिलती है,
अस्तित्व अपना मिटाती है,
मयूरी तुम कब नाचोगी!
Friday, November 12, 2010
Sunday, October 24, 2010
युद्ध-पताका
मरे हुए लोग,
क्या बदलाव लायेंगे,
कुछ बचे हैं जीवित,
वे इन्कलाब लायेंगे।
उठालो अपने हाथ,
गूँज करे यह नारा,
ज़ुल्मों का करो नाश,
है ये देश हमारा।
सैलाब जब आता है,
किनारे टूटते हैं,
आन्दोलनों से ही,
जहां बदलते हैं।
सब कुछ तोड़ो,
चुप रहना छोड़ो,
लहराओ युद्ध-पताका,
बदलाव लाकर छोड़ो।
क्या बदलाव लायेंगे,
कुछ बचे हैं जीवित,
वे इन्कलाब लायेंगे।
उठालो अपने हाथ,
गूँज करे यह नारा,
ज़ुल्मों का करो नाश,
है ये देश हमारा।
सैलाब जब आता है,
किनारे टूटते हैं,
आन्दोलनों से ही,
जहां बदलते हैं।
सब कुछ तोड़ो,
चुप रहना छोड़ो,
लहराओ युद्ध-पताका,
बदलाव लाकर छोड़ो।
अग्रसर
छोटे-छोटे क़दमों से,
बड़े-बड़े क़दमों से,
सुख-शान्ति खो कर या पा कर,
मृत्यु की ओर अग्रसर।
कुछ खा कर या पी कर,
अथवा खाली पेट जी कर,
हार कर या जीत कर,
मृत्यु की ओर अग्रसर।
अमीर-गरीब,
ज्ञानी-अज्ञानी,
एक दिशा में जा रहे,
मृत्यु को गले लगा रहे।
फूलों जैसा हो,
काँटों जैसा हो,
जीवन जैसे भी चले,
मृत्यु की ओर चले।
मानो या न मानो,
जानो या न जानो,
जीवन चल-चल कर,
मृत्यु की ओर अग्रसर।
बड़े-बड़े क़दमों से,
सुख-शान्ति खो कर या पा कर,
मृत्यु की ओर अग्रसर।
कुछ खा कर या पी कर,
अथवा खाली पेट जी कर,
हार कर या जीत कर,
मृत्यु की ओर अग्रसर।
अमीर-गरीब,
ज्ञानी-अज्ञानी,
एक दिशा में जा रहे,
मृत्यु को गले लगा रहे।
फूलों जैसा हो,
काँटों जैसा हो,
जीवन जैसे भी चले,
मृत्यु की ओर चले।
मानो या न मानो,
जानो या न जानो,
जीवन चल-चल कर,
मृत्यु की ओर अग्रसर।
Sunday, August 8, 2010
मानसिक संतुलन
पूरे विश्व में,
यह हो रहा है,
मानसिक संतुलन,
बिगड़ रहा है।
अच्छा चाल-चलन,
घटता जा रहा है,
अविश्वास निरंतर,
बढता जा रहा है।
इर्षा और नफरत की आग में,
जलता जा रहा है,
लालच के अथाह सागर में,
डूबता जा रहा है।
ज्यादा पाने की चाह में,
सब कुछ खोता जा रहा है,
मानव धीरे-धीरे,
अमानुष होता जा रहा है।
एक-एक कर,
सबको छोड़ता जा रहा है,
अब ये आलम है,
अकेलापन खा रहा है।
यह हो रहा है,
मानसिक संतुलन,
बिगड़ रहा है।
अच्छा चाल-चलन,
घटता जा रहा है,
अविश्वास निरंतर,
बढता जा रहा है।
इर्षा और नफरत की आग में,
जलता जा रहा है,
लालच के अथाह सागर में,
डूबता जा रहा है।
ज्यादा पाने की चाह में,
सब कुछ खोता जा रहा है,
मानव धीरे-धीरे,
अमानुष होता जा रहा है।
एक-एक कर,
सबको छोड़ता जा रहा है,
अब ये आलम है,
अकेलापन खा रहा है।
भाग्य
मेरी बीवी,
खाना बनाती है,
कपडे धोती है,
भाग्य की बात है।
मेरी बेटी,
चाय भी नहीं बनाती,
खाली प्याला भी नहीं उठाती,
भाग्य की बात है।
लगता है,
भाग्य करवट ले रहा है,
लड़की-लड़के के अंतर को,
मिटा रहा है।
सदियों के गलत को,
जो भाग्य हो गया था,
अब भाग्य-विधाता उसे,
बदल रहा है।
खाना बनाती है,
कपडे धोती है,
भाग्य की बात है।
मेरी बेटी,
चाय भी नहीं बनाती,
खाली प्याला भी नहीं उठाती,
भाग्य की बात है।
लगता है,
भाग्य करवट ले रहा है,
लड़की-लड़के के अंतर को,
मिटा रहा है।
सदियों के गलत को,
जो भाग्य हो गया था,
अब भाग्य-विधाता उसे,
बदल रहा है।
Friday, March 12, 2010
कुवें का मेंडक
कुवें के मेंडक की तरह
अपनी दुनिया में रहता है
जब चाहा फुदक लिया
मन चाहा गुनगुना लिया
कुवें के बाहर भी,
एक संसार हे,
उसे क्या लेना-देना,
कुवें का सरदार है।
सुने या न सुने,
कोई सरोकार नहीं,
कहना हो तो कह दिया,
टोकने वाला है नहीं।
कवि और मेंडक में,
कुछ अंतर नहीं,
सत्य यही है मगर,
कवि मानेगा नहीं।
कवि लिखता हे,
प्रायः सही,
चेतना जगाता हे,
जो है ही नहीं।
अपनी दुनिया में रहता है
जब चाहा फुदक लिया
मन चाहा गुनगुना लिया
कुवें के बाहर भी,
एक संसार हे,
उसे क्या लेना-देना,
कुवें का सरदार है।
सुने या न सुने,
कोई सरोकार नहीं,
कहना हो तो कह दिया,
टोकने वाला है नहीं।
कवि और मेंडक में,
कुछ अंतर नहीं,
सत्य यही है मगर,
कवि मानेगा नहीं।
कवि लिखता हे,
प्रायः सही,
चेतना जगाता हे,
जो है ही नहीं।
Subscribe to:
Posts (Atom)