पूरे विश्व में,
यह हो रहा है,
मानसिक संतुलन,
बिगड़ रहा है।
अच्छा चाल-चलन,
घटता जा रहा है,
अविश्वास निरंतर,
बढता जा रहा है।
इर्षा और नफरत की आग में,
जलता जा रहा है,
लालच के अथाह सागर में,
डूबता जा रहा है।
ज्यादा पाने की चाह में,
सब कुछ खोता जा रहा है,
मानव धीरे-धीरे,
अमानुष होता जा रहा है।
एक-एक कर,
सबको छोड़ता जा रहा है,
अब ये आलम है,
अकेलापन खा रहा है।
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