अपनों को अपना ना सका ,
वह दूसरों का क्या होगा ,
अपने घर में आग लगाए ,
औरों का साथी क्या होगा ।
करे अपनों से ,
गैरों सा व्यवहार ,
वह दूसरों का यार ,
क्या होगा।
जहाँ सब कुछ हो तिजारत ,
वहां प्यार क्या होगा ,
जहाँ पैसा हो खुदा ,
वहां बन्दों का क्या होगा।
कैकयी और कंस ,
आज भी हैं श्रीमान ,
तनिक आँख खोल देख ,
हैं सब यहीं विराजमान ।
मानवता कुछ भी ,
उन्नति न कर सकी ,
वह वहीं खड़ी है ,
युगों से गडी है ।
नफरत की वजह ,
अब धर्म हो गया ,
धर्म न भी होता ,
तो और कारण होता ।
आदमी का बहशीपन ,
शायद उसकी फितरत है ,
नष्ट करने की भावना ही ,
अब उसकी आदत है ।
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2 comments:
सुभाष जी,बहुत बढिया लिखा है।बधाई।
आदमी का बहशीपन ,
शायद उसकी फितरत है ,
नष्ट करने की भावना ही ,
अब उसकी आदत है ।
Bhai Subhash, Its great to make noises on these issues. Tolerance to nuisance is the biggest problem in India. I am sure, some time these noises may have some effect. Never stop saying just because no one is listening !! Enjoying your poems. PK
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