Wednesday, December 17, 2008

आप

अपनों को अपना ना सका ,
वह दूसरों का क्या होगा ,
अपने घर में आग लगाए ,
औरों का साथी क्या होगा ।

करे अपनों से ,
गैरों सा व्यवहार ,
वह दूसरों का यार ,
क्या होगा।

जहाँ सब कुछ हो तिजारत ,
वहां प्यार क्या होगा ,
जहाँ पैसा हो खुदा ,
वहां बन्दों का क्या होगा।

कैकयी और कंस ,
आज भी हैं श्रीमान ,
तनिक आँख खोल देख ,
हैं सब यहीं विराजमान ।

मानवता कुछ भी ,
उन्नति न कर सकी ,
वह वहीं खड़ी है ,
युगों से गडी है ।

नफरत की वजह ,
अब धर्म हो गया ,
धर्म न भी होता ,
तो और कारण होता ।

आदमी का बहशीपन ,
शायद उसकी फितरत है ,
नष्ट करने की भावना ही ,
अब उसकी आदत है ।


2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

सुभाष जी,बहुत बढिया लिखा है।बधाई।

आदमी का बहशीपन ,
शायद उसकी फितरत है ,
नष्ट करने की भावना ही ,
अब उसकी आदत है ।

Khandelwal PK said...

Bhai Subhash, Its great to make noises on these issues. Tolerance to nuisance is the biggest problem in India. I am sure, some time these noises may have some effect. Never stop saying just because no one is listening !! Enjoying your poems. PK